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अयोध्या इतिहास के झरोखे से ः 2






सिविल मुक़दमे









16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज की अदालत में, सरकार, ज़हूर अहमद और अन्य मुसलमानों के खिलाफ़ मुक़दमा दायर कर कहा कि जन्मभूमि पर स्थापित श्री भगवान राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए और उन्हें दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाए.








सिविल जज ने उसी दिन यह स्थागनादेश जारी कर दिया, जिसे बाद में मामूली संशोधनों के साथ ज़िला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया.


स्थगनादेश को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दी गई जिससे फ़ाइल पाँच साल वहाँ पड़ी रही. नए जिला मजिस्ट्रेट जेएन उग्रा ने सिविल कोर्ट में अपने पहले जवाबी हलफ़नामे में कहा, “विवादित संपत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है और मुसलमान इसे लंबे समय से नमाज़ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं. इसे राम चन्द्र जी के मंदिर के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाता था. 22 दिसंबर की रात वहाँ चोरी-छिपे और ग़लत तरीक़े से श्री रामचंद्र जी की मूर्तियाँ रख दी गई थीं.”


कुछ दिनों बाद दिगंबर अखाड़ा के महंत रामचंद्र परमहंस ने भी विशारद जैसा एक और सिविल केस दायर किया. परमहंस मूर्तियाँ रखने वालों में से एक थे और बाद में विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी. इस मुक़दमे में भी मूर्तियाँ न हटाने और पूजा जारी रखने का आदेश हुआ.


कई साल बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति क़रार देते हुए नया मुक़दमा दायर किया तब परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया.


मूर्तियाँ रखने के क़रीब दस साल बाद 1951 में निर्मोही अखाड़े ने जन्मस्थान मंदिर के प्रबंधक के नाते तीसरा मुक़दमा दायर किया. इसमें राम मंदिर में पूजा और प्रबंध के अधिकार का दावा किया गया.


दो साल बाद 1961 में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और नौ स्थानीय मुसलमानों की ओर से चौथा मुक़दमा दायर हुआ इसमें न केवल मस्जिद बल्कि अगल-बगल क़ब्रिस्तान की ज़मीनों पर भी स्वामित्व का दावा किया गया.


ज़िला कोर्ट इन चारों मुक़दमों को एक साथ जोड़कर सुनवाई करने लगी. दो दशक से ज़्यादा समय तक यह एक सामान्य मुक़दमे की तरह चलता रहा और इसकी वजह से अयोध्या के स्थानीय हिंदू-मुसलमान अच्छे पड़ोसी की तरह रहते रहे. इतना ही नहीं, मुक़दमे के दोनों मुख्य पक्षकारों परमहंस और हाशिम अंसारी ने मुझे बताया था कि वे एक ही गाड़ी में हँसते-बतियाते कोर्ट जाते थे. बिना हिचक रात-बिरात एक दूसरे के घर आते-जाते थे.


मैंने दिगंबर अखाड़े में एक साथ दोनों का इंटरव्यू लिया था. अब वे दोनों इस दुनिया में नहीं हैं.


 












मंदिर-मस्जिद की राजनीति   


इमरजेंसी के बाद 1977 में जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया, लेकिन इनकी आपसी फूट से सरकार तीन साल भी नहीं पूरे नहीं कर पाई. इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापस आ गईं.


संघ परिवार ने मंथन शुरू किया कि अगले चुनाव से पहले हिंदुओं को कैसे राजनीतिक रूप से एकजुट करें? हिंदुओं के तीन सबसे प्रमुख आराध्य-- राम, कृष्ण और शिव से जुड़े स्थानों अयोध्या, मथुरा और काशी की मस्जिदों को केंद्र बनाकर आंदोलन छेड़ने की रणनीति बनी.


7-8 अप्रैल को दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन कर तीनों धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव पास किया गया. चूँकि काशी और मथुरा में स्थानीय समझौते से मस्जिद से सटकर मंदिर बन चुके हैं इसलिए पहले अयोध्या पर फ़ोकस करने का निर्णय किया गया.


27 जुलाई 1984 को राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ. एक मोटर का रथ बनाया गया जिसमें राम-जानकी की मूर्तियों को अंदर क़ैद दिखाया गया. 25 सितंबर को यह रथ बिहार के सीतामढ़ी से रवाना हुआ, आठ अक्टूबर को अयोध्या पहुँचते-पहुँचते हिंदू जन समुदाय में अपने आराध्य को इस लाचार हालत में देखकर आक्रोश और सहानुभूति पैदा हुई.


मुख्य माँग यह थी कि मस्जिद का ताला खोलकर ज़मीन मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं को दे दी जाए. इसके लिए साधु-संतों का राम जन्मभूमि न्यास बनया गया.


प्रबल जन समर्थन जुटाती हुई यह यात्रा लखनऊ होते हुए 31 अक्टूबर को दिल्ली पहुँची. उसी दिन इंदिरा गांधी की हत्या के कारण उत्पन्न अशांति के कारण दो नवंबर को प्रस्तावित विशाल हिंदू सम्मेलन और आगे के कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा.


आम चुनाव में राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत मिला पर वह राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से अनुभवी नहीं थे. 


इसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने मस्जिद का ताला खोलने के लिए फिर आंदोलन तेज़ किया और शिवरात्रि छह मार्च 1986 तक ताला न खुला तो ज़बरन ताला तोड़ने की धमकी दी.


आंदोलन को धार देने के लिए आक्रामक बजरंग दल का गठन किया गया, जन भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए उत्तर प्रदेश की वीर बहादुर सरकार ने विवादित स्थल के समीप क़रीब 42 एकड़ ज़मीन लेकर विशाल राम कथा पार्क के निर्माण का ऐलान किया और सरयू नदी से अयोध्या के पुराने घाटों तक नहर बनाकर राम की पैड़ी बनाने का काम शुरू किया लेकिन इससे हिन्दुत्ववादी संगठन संतुष्ट नहीं हुए.











ताला खुलना 

















माना जाता है कि इसी दबाव में आकर राजीव गांधी और उनके साथियों ने फ़ैज़ाबाद ज़िला अदालत में एक ऐसे वक़ील उमेश चंद्र पांडेय से ताला खुलवाने की अर्ज़ी डलवाई, जिसका वहाँ लंबित मुक़दमों से संबंध नहीं था. ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान ने ज़िला जज की अदालत में उपस्थित होकर कहा कि ताला खुलने से शांति व्यवस्था क़ायम रखने में कई परेशानी नहीं होगी. इस बयान को आधार बनाकर ज़िला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश कर दिया.


घंटे भर के भीतर इस पर अमल करके दूरदर्शन पर समाचार भी प्रसारित कर दिया गया, जिससे यह धारणा बनी कि यह सब प्रायोजित था. इसके बाद ही पूरे हिंदुस्तान और दुनिया को अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद का पता चला. प्रतिक्रिया में मुस्लिम समुदाय ने मस्जिद की रक्षा के लिए बाबरी मोहम्मद आज़म खान और ज़फ़रयाब जिलानी की अगुआई में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन कर जवाबी आंदोलन चालू किया.


इस बीच मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेताओं ने राजीव गांधी पर दबाव डाला कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश संसद में क़ानून बनाकर पलट दिया जाए. राजीव गांधी सरकार ने इस फ़ैसले को उलटने के लिए सांसद में क़ानून पारित करा दिया. इस निर्णय की तीखी आलोचना हुई.


दोनों ओर से सुलह समझौते की भी बातें होती हैं कि हिंदू मस्जिद पीछे छोड़कर राम चबूतरे से आगे ख़ाली ज़मीन पर मंदिर बना लें. मगर संघ परिवार इन सबको नकार देता है.


हिंदू और मुस्लिम दोनों के तरफ़ से देश भर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति चलती है. भाजपा खुलकर मंदिर आंदोलन के साथ आ जाती है.


भारतीय जनता पार्टी ने 11 जून 1989 को पालमपुर कार्यसमिति में प्रस्ताव पास किया कि अदालत इस मामले का फ़ैसला नहीं कर सकती और सरकार समझौते या संसद में क़ानून बनाकर राम जन्मस्थान हिंदुओं को सौंप दे.


लोगों ने महसूस किया कि अब यह राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा बन गया गया है जिसका असर अगले लोकसभा चुनाव पर पड़ सकता है.


उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके अनुरोध किया कि चारों मुक़दमे फ़ैज़ाबाद से अपने पास मँगाकर जल्दी फ़ैसला कर दिया जाए. 10 जुलाई 1989 को हाईकोर्ट ने मामले अपने पास मंगाने का आदेश दे दिया. हाईकोर्ट ने 14 अगस्त को स्थगनादेश जारी किया कि मामले का फ़ैसला आने तक मस्जिद और सभी विवादित भूखंडों की वर्तमान स्थिति में कोई फ़ेरबदल न किया जाए.


 












शिलान्यास


विश्व हिंदू परिषद ने 9 नवंबर को राम मंदिर के शिलान्यास और देश भर में शिलापूजन यात्राएँ निकालने की घोषणा की. राजीव गांधी के कहने पर गृह मंत्री बूटा सिंह ने 27 सितंबर को लखनऊ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के बंगले पर विश्व हिंदू परिषद से इन यात्राओं के शांतिपूर्ण ढंग से निकालने का वादा लिया.


अशोक सिंघल, महंत अवैद्य नाथ और उनके साथियों ने शांति-सौहार्द और हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक़ यथास्थिति बनाए रखने का लिखित वादा किया.


राजीव गांधी ने रामराज्य की स्थापना के नारे के साथ अपना चुनाव अभियान फ़ैज़ाबाद से शुरू किया. उधर विश्व हिंदू परिषद ने मस्जिद से कुछ दूरी पर शिलान्यास के लिए झंडा गाड़ दिया.


सरकार इस बात को साफ़ करने के लिए हाईकोर्ट में गई कि क्या प्रस्तावित शिलान्यास का भूखंड विवादित क्षेत्र में आता है या नहीं. 7 नवंबर को हाईकोर्ट ने फिर स्पष्ट किया कि यथास्थिति के आदेश में वह भूखंड भी शामिल है.


फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार ने यह कहकर 9 नवंबर को शिलान्यास की अनुमति दे दी कि मौक़े पर पैमाइश में वह भूखंड विवादित क्षेत्र से बाहर है.


माना जाता है कि संत देवराहा बाबा की सहमति से किसी फ़ार्मूले के तहत मस्जिद से क़रीब 200 फुट दूर शिलान्यास कराया गया.


शिलान्यास तो हो गया लेकिन मुसलमान समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया देखकर सरकार ने आगे का निर्माण रोक दिया.


इस बीच कांग्रेस से बाग़ी वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल नाम की एक तीसरी राजनीतिक शक्ति का उदय हो चुका था. कांग्रेस चुनाव हार गई और वीपी सिंह बीजेपी और वामपंथी दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री बने.


वीपी सिंह और जनता दल का रुझान स्पष्ट रूप से मुसलमानों की तरफ़ दिख रहा था. उत्तर प्रदेश में जनता दल ने पुराने समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री चुना, जो पहले विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन का विरोध कर चुके थे.


अब बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन को खुलकर अपने हाथ में ले लिया जिसका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने किया.


आडवाणी देश भर में माहौल बनाने के लिए 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ मंदिर से 30 अक्टूबर तक अयोध्या की रथयात्रा पर निकले. देश में कई जगह दंगे-फ़साद हुए. लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी को बिहार में ही गिरफ़्तार करके रथयात्रा रोक दी.


मुलायम सरकार की तमाम पाबंदियों के बावजूद 30 अक्टूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या पहुँचे. लाठी गोली के बावजूद कुछ कारसेवक मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए. मगर अंत में पुलिस भारी पड़ी. प्रशासन ने कारसेवकों पर गोली चलवा दी जिसमें सोलह करसेवक मारे गए, हालाँकि हिंदी अख़बार विशेषांक निकालकर सैकड़ों कारसेवकों के मरने और सरयू के लाल होने की सुर्ख़ियाँ लगाते रहे.


मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम कहा जाने लगा, वे हिंदुओं में बेहद अलोकप्रिय हो गए और अगले विधानसभा चुनाव में उनकी बुरी पराजय हुई. नाराज़ बीजेपी ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जनता दल के अंदर भी देवीलाल ने बग़ावत कर दी.


इसी हंगामे के बीच वीपी सिंह ने पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए पुरानी मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर दी. अब देश में अगड़ों-पिछड़ों या मंडल-कमंडल का खुला संघर्ष छिड़ गया.


1991 के लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई और कांग्रेस के बुज़ुर्ग नेता नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. उत्तर प्रदेश में मध्यावधि चुनाव में भाजपा के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने, सरकार बनते ही कल्याण सिंह सरकार ने मस्जिद के सामने की 2.77 एकड़ ज़मीन पर्यटन विकास के लिए अधिग्रहीत कर ली. राम कथा पार्क के लिए अधिग्रहीत 42 एकड़ ज़मीन लीज़ पर विश्व हिंदू परिषद को दे दी गई.


सरकार के निर्देश पर अधिकारी पुराने सिविल मुक़दमों में तथ्य बदलकर नए हलफ़नामे दाख़िल करने लगे. संघ परिवार की मंशा थी कि मस्जिद के सामने पर्यटन के लिए अधिग्रहीत ज़मीन पर मंदिर निर्माण शुरू कर दिया जाए जिसके लिए पत्थर तराशे गए.


मगर हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि इस ज़मीन पर स्थायी निर्माण नहीं होगा. फिर भी जब जुलाई में निर्माण शुरू हो गया तो सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. नरसिम्हा राव सरकार बड़ी मुश्किल से संतों को समझा-बुझाकर यह निर्माण रुकवा पाई.


दिसंबर 1992 में फिर कारसेवा का ऐलान हुआ. कल्याण सरकार और विश्व हिंदू परिषद नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में वादा किया कि सांकेतिक कारसेवा में मस्जिद को क्षति नहीं होगी.












कल्याण सिंह ने पुलिस को बल प्रयोग न करने की हिदायत दी. कल्याण सिंह ने स्थानीय प्रशासन को केंद्रीय बलों की सहायता भी नहीं लेने दी. उसके बाद छह दिसंबर को जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो चुका है. आडवाणी, जोशी और सिंघल जैसे शीर्ष नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के ऑब्ज़र्वर ज़िला जज तेजशंकर और पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में लाखों कारसेवकों ने छह दिसंबर को मस्जिद की एक-एक ईंट उखाड़कर मलवे के ऊपर एक अस्थायी मंदिर बना दिया.


वहाँ पहले की तरह रिसीवर की देखरेख में दूर से दर्शन-पूजन शुरू हो गया. मुसलमानों ने केंद्र सरकार पर मिलीभगत और निष्क्रियता का आरोप लगाया पर प्रधानमंत्री ने सफ़ाई दी कि संविधान के अनुसार शांति व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी थी और उन्होंने क़ानून के दायरे में रहकर जो हो सकता है किया. उन्होंने मस्जिद के पुनर्निर्माण का भरोसा भी दिया.


मस्जिद ध्वस्त होने के कुछ  दिनों बाद हाईकोर्ट ने कल्याण सरकार की ज़मीन अधिग्रहण की कार्रवाई को ग़ैरक़ानूनी क़रार दे दिया. जनवरी 1993 में केंद्र सरकार ने मसले के स्थायी समाधान के लिए संसद से क़ानून बनाकर विवादित परिसर और आसपास की लगभग 67 एकड़ ज़मीन को अधिग्रहीत कर लिया.


हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमे समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी गई कि क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण कोई पुराना हिंदू मंदिर तोड़कर किया गया था यानी विवाद को इसी भूमि तक सीमित कर दिया गया.


इस क़ानून की मंशा थी कि कोर्ट जिसके पक्ष में फ़ैसला देगी उसे अपना धर्म स्थान बनाने के लिए मुख्य परिसर दिया जाएगा और थोड़ा हटकर दूसरे पक्ष को ज़मीन दी जाएगी. दोनों धर्म स्थलों के लिए अलग ट्रस्ट बनेंगे. यात्री सुविधाओं का भी निर्माण होगा. फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर को केंद्र सरकार की ओर से रिसीवर नियुक्त किया गया.


लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ मस्जिद से पहले कोई हिंदू मंदिर था. जजमेंट में कहा गया कि अदालत इस तथ्य का पता लगाने में सक्षम नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमों को भी बहाल कर दिया, जिससे दोनों पक्ष न्यायिक प्रक्रिया से विवाद निबटा सकें.


हाईकोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से बाबरी मस्जिद और राम चबूतरे के नीचे खुदाई करवाई जिसमें काफ़ी समय लगा. रिपोर्ट में कहा गया कि नीचे कुछ ऐसे निर्माण मिले हैं जो उत्तर भारत के मंदिरों जैसे हैं. इसके आधार पर हिंदू पक्ष ने नीचे पुराना राम मंदिर होने का दावा किया, जबकि अन्य इतिहासकारों ने इस निष्कर्ष को ग़लत बताया.


लंबी सुनवाई, गवाही और दस्तावेज़ी सबूतों के बाद 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जजमेंट दिया. तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तीनों जजों ने यह माना कि भगवान रामचंद्र जी का जन्म मस्जिद के बीच वाले गुंबद वाली ज़मीन पर हुआ होगा. लेकिन ज़मीन पर मालिकाना हक़ के बारे में किसी के पास पुख़्ता सबूत नहीं थे.


दीर्घकालीन क़ब्ज़े के आधार पर भगवान राम, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बाँट दिया. इसे एक पंचायती फ़ैसला भी कहा गया, जिसे सभी पक्षकारों ने नकार दिया.


अब क़रीब एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट को अंतिम निर्णय देना है.


अदालती विवाद अब महज़ आधा बिस्वा या लगभग 1500 वर्ग-गज ज़मीन का है जिस पर विवादित बाबरी मस्जिद ज़मीन खड़ी थी. लेकिन धर्म, इतिहास, आस्था और राजनीति के घालमेल ने इसे इतना जटिल और संवेदनशील बना दिया है कि सुप्रीम कोर्ट का आने वाला फ़ैसला न केवल भारत बल्कि दक्षिण एशिया और उससे बाहर भी असर डालेगा.


यह भी देखना होगा कि क्या अदालत इतिहास में हुई ग़लतियों या ज़्यादती को सुधार सकती है या वह वर्तमान क़ानूनों की परिधि में ही रहकर निर्णय दे सकती है.




लेखक: रामदत्त त्रिपाठी












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