‘धर्मराज युधिष्ठिर और महात्मा गांधी’

                                                                      


     यह व्यवहारत: सिद्ध है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है। काल और पात्र बदल जाते हैं, घटनाओं का स्वरूप भी पर्याप्त परिवर्तित हो जाता है, किंतु विचार और कार्य लगभग समरूप रहते हैं। यही इतिहास का दुहरना है किंतु विडंबना यह है कि मनुष्य इतिहास को जानते हुए भी, पूर्व में घटित घटनाओं के परिणामों से परिचित होकर भी वही त्रुटियां करता है जो अतीत में घातक सिद्ध हो चुकी होती हैं। भारतीय समाज और साहित्य में इतिहास का यह दुहराव धर्मराज युधिष्ठिर और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व में पग-पग पर परिलक्षित होता है। 


      धर्मराज युधिष्ठिर सत्यवादी हैं ,सहिष्णु हैं और प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं कष्ट सहकर भी बंधुत्व के आकांक्षी हैं। यही प्रवृत्ति महात्मा गांधी के स्वभाव में भी दिखाई देती है। वे भी अलगाववादी मुस्लिम मानसिकता से मैत्री के अभिलाषी हैं और उसकी हर शर्त स्वीकार करने को तत्पर मिलते हैं। खिलाफत-आंदोलन से लेकर भारत-विभाजन तक की लगभग समस्त घटनाएं इस तथ्य को रेखांकित करती हैं। 


      जिस प्रकार कौरवों के समक्ष युधिष्ठिर के समस्त मैत्री प्रयत्न विफल होते हैं और दुर्योधन की उच्चाकांक्षा से उत्पन्न राज्याभिलाषा हस्तिनापुर के विभाजन का कारण बनती है उसी प्रकार महात्मा गांधी के भी सभी प्रयत्न निष्फल होते हैं और अंततः भारत-विभाजन की अलगाववादी कूटनीति सफल हो जाती है। यहां तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के प्रतीक पुरुष महात्मा गांधी यह विस्मृत कर देते हैं कि राज्य का विभाजन विघटनकारी अलगाववादी सोच का सार्थक और स्थायी समाधान नहीं है। यदि होता तो हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ दो स्वतंत्र राज्य बन जाने के उपरांत कौरवों का पांडवों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष समाप्त हो जाता और दोनों राज्यों के शासक अपनी-अपनी सीमाओं में सुख पूर्वक रह लेते किंतु ऐसा नहीं हुआ और हस्तिनापुर-राज्य विभाजन के उपरांत पांडवों के पुरुषार्थ से निर्मित इंद्रप्रस्थ को हस्तगत करने के नए कूट प्रयत्न पुनः प्रारंभ हो गए। ठीक यही स्थिति भारत विभाजन की विभीषिका के उपरांत दिखाई देती है। पाकिस्तान ने अस्तित्व में आते ही हिंदुस्तान के लिए नई मुसीबतें खड़ी करना प्रारंभ कर दिया। जो एक घर में नहीं रह सका वह पड़ोसी बनकर भी शांति से नहीं बैठा। इतिहास की यह प्रामाणिक सीख  कि देश का विभाजन द्वेषपूर्ण मदांध मानसिक-व्याधि का सही उपचार नहीं है -- आधुनिक भारत के नेतृत्व ने सर्वथा उपेक्षित की और एक नए महाभारत की नींव डाल दी, जिसका बिगुल विगत 70 वर्ष से बज रहा है और अब महासंग्राम का शंखनाद भीषण संहार के लिए आतुर है जिसका संकेत पाक प्रधानमंत्री श्री इमरान खान द्वारा यू.एन.ए. के मंच से दिये गये बयान में स्पष्टतः मिलता है।


     धर्मराज युधिष्ठिर के उच्च आदर्श और सद्भाव उनकी महानता को प्रतिपादित कर उन्हें आदरणीय और बहुमान्य बनाते हैं किंतु धृतराष्ट्र, शकुनि और दुर्योधन जैसी कुटिल मानसिकता युधिष्ठिर की सहृदयता को स्वीकार नहीं करती। इनकी सत्ता लोलुपता युधिष्ठिर की शांतिप्रियता को कायरता समझ कर उसका उपहास करती है। यही स्थिति आधुनिक भारत की राजनीति में तब देखी जा सकती है जब दुर्योधनी भावों से भरी तथाकथित कायदे आजम मुहम्मदअली जिन्ना की अलग देश की मांग महात्मा गांधी की सारी अनुनय-विनय ठुकरा कर 'सीधी-कार्यवाही' की धमकी देती हुई निर्दोष हिंदुओं के नरसंहार को बढ़ावा देती है और अंततः पाकिस्तान बनवाकर ही मानती है। यहां कोई सत्याग्रह सफल नहीं होता। प्रेम, अहिंसा, बंधुत्व और सह-अस्तित्व के सारे दिव्यास्त्र यहाँ एक  निष्ठुर दुराग्रह के समक्ष दम तोड़ते दिखाई देते हैं।


     यदि समय रहते किसी व्याधि का समुचित उपचार न किया जाए तो वह धीरे-धीरे पुष्ट होकर प्राणघातक बन जाती है। महाभारत में हस्तिनापुर की राज्यसत्ता ने अंधे पुत्रमोह में शकुनि और दुर्योधन की आपराधिक षड्यंत्रकारी मानसिकता का कोई उपचार नहीं किया। परिणामतः बचपन में भीम को विष देने वाली क्रूर मानसिकता अंततः कुरुक्षेत्र के मैदान में भयानक संहार का कारण बनी। भारत-विभाजन की विषबेलि का बीज भी महात्मा गांधी की तुष्टिकरण वाली मोहग्रस्त दुर्नीति से सिंचित होकर पल्लवित और पुष्पित हुआ तथा पाकिस्तान बनते ही वहां के लाखों हिंदुओं - सिखों के सर्वनाश एवं विस्थापन का कारण बना। यदि ज्येष्ठ पांडुपुत्र युधिष्ठिर ने अपने उत्तरदायित्व का सम्यक् निर्वाह करते हुये दुर्योधन द्वारा भीम को विष दिए जाने पर उचित प्रतिक्रिया देकर भीष्म-धृतराष्ट्र आदि से न्याय की मांग की होती तो बहुत संभव था की षड्यंत्र का भंडाफोड़ होने पर शकुनि को हस्तिनापुर से निष्कासित कर दिया जाता तथा दुर्योधन के अपरिपक्व किशोर-मन को संस्कारित-परिष्कृत कर नई रचनात्मक दिशा दिया जाना संभव हो जाता और तब इतिहास को महाभारत का भीषण संहार न देखना पड़ता। जो भूल युधिष्ठिर ने शकुनि और दुर्योधन के क्रूर-कृत्य पर धूल डालकर की वही ऐतिहासिक भूल भारत विभाजन की अमंगलकारी मांग करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना को आवश्यकता से अधिक महत्व देकर महात्मा गांधी के नेतृत्व में दोहराई गई। यदि  मोहम्मदअली जिन्ना के स्थान पर अब्दुल गफ्फार खान जैसे अन्य उदार विचारों वाले नेताओं को आगे कर कट्टरतावादी मुस्लिम लीग की माँग को हतोत्साहित किया जाता तो बहुत संभव था कि विभाजन की त्रासदी का अभिशाप हमें ना झेलना पड़ता।


       विवेकहीन अंधी आदर्श-प्रियता स्वयं के ही नहीं, स्वजनों के भी कष्ट का कारण बनती है। राजसूय-यज्ञ के उपरांत सुख-पूर्वक इंद्रप्रस्थ में रह रहे युधिष्ठिर ने बिना विचार किए; अतीत में घटित दुर्घटनाओं से बिना कोई शिक्षा लिए आँख मूँदकर धृतराष्ट्र की आज्ञा का पालन किया और हस्तिनापुर के द्यूतक्रीड़ा-गृह में आ डटे तथा सर्वस्व गंवाकर अपने और अपने परिवार के अपमान का कारण बने। उनके एक अविवेकपूर्ण कृत्य ने ना केवल उन्हें उनकी राज्यश्री से वंचित किया अपितु उनके दिग्विजयी भाइयों सहित द्रोपदी को भी 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास हेतु संकटापन्न जीवन-पथ पर धकेल दिया। इसी प्रकार भारत-विभाजन के भावी दुष्परिणामों पर गंभीर चिंतन किए बिना महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने विभाजन की स्वीकृति देकर लाखों देशवासियों का धन, सम्मान और जीवन संकट में डाल दिया। इस अविवेकपूर्ण निर्णय ने ना केवल उस समय संहार की गहरे घाव दिए अपितु देश के विरुद्ध भावी परमाणु युद्ध की पृष्ठभूमि भी निर्मित कर दी। यदि उस समय पाकिस्तान ना बना होता तो ना आज पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद होता, ना जम्मू-कश्मीर की समस्या होती, ना पाकिस्तान की धरती पर बैठकर चीन को हमारे विरुद्ध संघर्षपूर्ण सामरिक अभियान क्रियान्वित करने का अवसर मिलता और ना युद्धोन्मादग्रस्त पाकिस्तानी शक्ति भारत के विरुद्ध परमाणु बम बना पाती। पाकिस्तान बनाए जाने के प्रस्ताव की स्वीकृति निश्चय ही युधिष्ठिरी आदर्शन्ध मानसिकता की भयानक भूल थी ।


       युधिष्ठिर और महात्मा गांधी जैसे लोग अपनी उदार और उदात्त विचार-संपदा के कारण समाज एवं इतिहास के पृष्ठ पर अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। वे युग-युग के लिए वंदनीय और पूज्य बन जाते हैं किंतु अन्याय, अत्याचार एवं उत्पीड़न के अहंकारी शिखर ढहाने में वे कितने सफल रहते हैं, यह कहना कठिन है। ऐसी असाधारण बौद्धिक-संपदा संपन्न विभूतियों को व्यापक जनसमर्थन तो सहज ही प्राप्त हो जाता है किंतु सत्ता से जुड़ी शक्तियाँ इनकी परवाह नहीं करतीं और कभी-कभी तो अपनी रूढ़ि-निर्मित बेड़ियों में जकड़ी हुई इनके विरोध में खड़ी दिखाई देती हैं। महाभारत में भीष्म-द्रोण आदि का कौरवों को समर्थन और ब्रिटिश प्रतिनिधि लॉर्ड माउंटबेन्टन की स्वर्गीय जिन्ना के प्रति अतिरिक्त आसक्ति और पाकिस्तान के निर्माण में उनकी रुचि इस तथ्य की साक्षी है। शोषण और उत्पीड़न के दृढ़-दुर्ग धर्म और दर्शन की उन्नत बौद्धिक उपलब्धियों से नहीं टूटते। उन्हें ढहाने के लिए प्रचंड बाहुबल और अपूर्व रण-कौशल की आवश्यकता होती है। कौरवों का विनाश भीम की गदा से और उनके सहायक कर्ण का संहार कृष्ण की राजनीतिक दृष्टि से संवलित अर्जुन के गांडीव से संभव होता है। ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति का स्वर्णिम अध्याय भी सुभाषचन्द्र बोस के रणकौशल और शस्त्रधारी क्रांतिकारियों के लहू से लिखा गया है। इतना अवश्य है कि स्वातंत्र्य-इतिहास के ग्रंथ-लेखन के निमित्त आवश्यक पृष्ठ निर्मित करने में महात्मा गांधी की महती भूमिका रही है।


       'हिमालय' शीर्षक रचना में राष्ट्रकवि दिनकर ने हिमालय को संबोधित करते हुए लिखा है –


''रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,


जाने दो उनको स्वर्ग धीर!


लौटा हमको गांडीव-गदा


लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।।''


      आज फिर पाकिस्तान की युद्धोन्मादी मानसिकता का उपचार करने के लिए; आतंकवाद के सहस्त्रों सर्पों  के फन कुचलने के लिए; नए खांडवदाह के लिए भारत को नए अर्जुन की प्रतीक्षा है; नए भीम का इंतजार है। नई रणनीति की अपेक्षा है। युद्ध में विजय युधिष्ठिर के काल्पनिक आदर्शों से नहीं कृष्ण की पल-पल बदलती अवसर विधायिनी नीति से ही मिलेगी।


       यह सत्य है कि युधिष्ठिर और महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तित्व अपनी अतिशय उदारता के कारण दुर्योधन और जिन्ना जैसे दुराग्रही जनों से अपनी बात नहीं मनवा पाते हैं; उन्हें सत्पथ पर लाने में विफल रहते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्वस्थ सामाजिक-व्यवस्था के निर्माण में इनका कोई योगदान नहीं होता। यह कहना भारी भूल होगी कि ये उदार महापुरुष समाज के लिए महत्वहीन हैं। वस्तुतः इनकी नैतिकता और इनके आदर्श इनके युग और समाज को दूर तक प्रभावित कर दुष्ट शक्तियों के विरुद्ध आवश्यक वातावरण तैयार करते हैं; व्यापक जनजागरण कर संघर्ष के लिए अपेक्षित संसाधन और सहानुभूति उपलब्ध कराते हैं। भीम-अर्जुन और सुभाषचंद्र बोस जैसी शस्त्र शक्तियां शत्रुओं का संहार तो कर पाती हैं किंतु उनके प्रति समाज में वैसी सहानुभूति विकसित नहीं होती जैसी युधिष्ठिर और महात्मा गांधी के प्रति सहज ही विकसित हो जाती है। इसलिए क्रांतिकारी परिवर्तन की पुष्ट पृष्ठभूमि रचने में इनका प्रदेय सर्वश्रेष्ठ होता है। 


     धर्मराज युधिष्ठिर और महात्मा गांधी आत्मबल के उत्तम प्रतीक हैं जबकि महाबली भीम एवं सुभाष बाहुबल के। आत्मबल के अभाव में बाहुबल पतित होकर पशुता बन जाता है; रावण-कंस और जनरल डायर जैसी क्रूरता दर्शाता है, जबकि बाहुबल-विहीन आत्म बल मानवता विरोधी अहंकारी शक्तियों से प्रताड़ित होता रहता है; पलायन पर विवश होता है। कश्मीर-घाटी से निशस्त्र कश्मीरी पंडितों की पलायनकारी विवशता इसकी साक्षी है। युधिष्ठिर और गांधी का आत्मबल आदर्श है और भीमसेन एवं सुभाष आदि का बाहुबल यथार्थ है। राजनीति का लोकमंगलकारी स्वरूप विकसित करने के लिए आत्मबल का आदर्श और बाहुबल का यथार्थ दोनों आवश्यक हैं। इसलिए मनुष्यता को अर्जुन और भगत सिंह के साथ-साथ युधिष्ठिर एवं महात्मा गांधी की भी आवश्यकता होती है; होती रहेगी।


डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र


विभागाध्यक्ष-हिन्दी


शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय 


होशंगाबाद म.प्र.





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